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ग्राम शेखपुरा कदीम, 1 अप्रैल 2025

यह कहानी है राशिद उर्फ टाटी की, जिसका जन्म 12 अप्रैल 1984 को हुआ। एक ऐसा लड़का, जिसने अपने जिगरी दोस्त फरजंद अली खान के साथ बचपन की धूल में खेल की शुरुआत की। दोनों ने स्कूल की पढ़ाई साथ की, मगर उनकी असली दुनिया थी खेल का मैदान। खो-खो की तेज़ी, कबड्डी की ताकत, कुश्ती की जंग – टाटी और फरजंद हर खेल में सबसे आगे। फिर आया 1996 का वर्ल्ड कप, जब भारत की हार ने टाटी के दिल में क्रिकेट की ऐसी आग जलाई कि वह कभी नहीं बुझी। यह सिर्फ एक खेल नहीं था – यह उसकी ज़िंदगी बन गया।

खेतों में जन्मा जुनून

शेखपुरा कदीम में कोई पक्का मैदान नहीं था। टाटी और फरजंद खेतों में उतरते, सूखी मिट्टी पर पिच खींचते, और गेंद को आसमान छूने को मजबूर करते। टाटी का बल्ला जब चलता, तो गाँव की गलियाँ गूँज उठतीं। स्कूल की छुट्टियों में दोनों दोस्त दिन-रात खेलते – पसीने से तर, धूल से सने, मगर सपनों से भरे। टाटी की दीवानगी ऐसी कि वह घर के काम भूल जाता। उसकी अम्मी कहतीं, “खेल बेटा, नाम कमाओ।” और टाटी खेलता रहा – न सिर्फ अपने लिए, बल्कि पूरे गाँव के लिए।

अब्बा की डाँट और झाड़ियों का ठिकाना

टाटी का क्रिकेट प्रेम उसके अब्बा राव कादिर को कभी पसंद नहीं आया। एक बार टूर्नामेंट में टाटी की टीम को हराने के लिए विरोधियों ने चाल चली। उन्होंने राव कादिर को फोन किया, “आपका बेटा स्कूल छोड़कर क्रिकेट खेल रहा है।” गुस्से से लाल राव साहब डंडा लेकर मैदान पर पहुँचे। टाटी ने दूर से अब्बा को आते देखा, बल्ला फेंका, और झाड़ियों में छुप गया। कई बार ऐसा हुआ – राव साहब की मार से बचने के लिए टाटी को जंगल में शरण लेनी पड़ी, मगर उसका जुनून कभी डगमगाया नहीं।

गाँव का हीरो, ट्रॉफियों का ढेर

टाटी की मेहनत रंग लाई। उसकी बल्लेबाज़ी में दम था, और कप्तानी में दिमाग। शेखपुरा कदीम की टीम ने उसके नेतृत्व में कई टूर्नामेंट जीते। एक बार उसने अकेले 80 रन ठोककर हारा हुआ मैच जिताया – गेंदबाज़ थक गए, मगर टाटी नहीं। उसका नाम आसपास के इलाकों में गूँजा – बड़ी टीमें उसके नाम से कांपती थीं। घर की लकड़ी की अलमारी ट्रॉफियों से भर गई, दीवारें मेडलों और सर्टिफिकेट से सज गईं। गाँव वाले उसे “शेखपुरा का सचिन” कहते, और टाटी मुस्कुराकर कहता, “अभी तो शुरुआत है।” मगर यह शुरुआत कभी आगे नहीं बढ़ी।

बहती पिचें, टूटते सपने

गाँव में कोई पक्का मैदान नहीं था। टाटी खाली खेतों में पिच बनाता, टूर्नामेंट कराता, और क्रिकेट को ज़िंदा रखता। मगर बुआई का मौसम आते ही मेहनत से तैयार पिचें ट्रैक्टर से उखड़ जातीं। गाँव में न नेट प्रैक्टिस थी, न कोचिंग, न ढंग की सुविधाएँ। फिर भी टाटी ने हार नहीं मानी। उसकी मशहूरी ऐसी हुई कि एक बैंक मैनेजर ने उसे नौकरी का ऑफर दिया। टाटी ने कुछ दिन बैंक में काम किया – सूट पहना, टाई लगाई, मगर उसका दिल मैदान में अटक गया। क्रिकेट का जुनून और मैदान की कमी ने उसे नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिया।

टूटा सपना, मगर नई राह

अगर शेखपुरा कदीम के पास एक ढंग का मैदान होता, तो टाटी आज अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर हो सकता था। फरजंद अली खान कहते हैं, “टाटी की बल्लेबाज़ी देखकर लोग दाँतों तले उंगलियाँ दबाते थे। उसमें सचिन जैसा टैलेंट था।” मगर गाँव की तंगहाली, सुविधाओं का अभाव, और घर की ज़िम्मेदारियों ने उसके सपनों का गला घोंट दिया। टाटी का बल्ला खामोश हो गया, मगर उसका जज़्बा नहीं मरा। वह अपने लिए भले कुछ न बना सका, मगर गाँव के बच्चों के लिए एक नई राह बना रहा है।

स्टेडियम का सपना: टाटी की विरासत

आज टाटी “सीरत सपोर्ट नज़्म” नाम से एक छोटी दुकान चला रहा है, जहाँ वह बच्चों के लिए क्रिकेट का सामान – बल्ले, गेंद, पैड, ग्लव्स – बहुत कम रेट में बेचता है। उसका मकसद पैसा कमाना नहीं, बल्कि गाँव के बच्चों का सुनहरा भविष्य बनाना है। उसने आमिर सर के साथ मिलकर गाँव में एक भव्य स्टेडियम बनाने का फैसला किया है। खेतों में पिच बनाने वाला यह लड़का अब पक्के मैदान का सपना देख रहा है। आमिर सर बच्चों को क्रिकेट के गुर सिखाते हैं – बल्ले की पकड़, गेंद की लाइन, और मैदान पर हौसला। टाटी हर दिन स्टेडियम की प्रगति देखता है, मजदूरों से बात करता है, और बच्चों को प्रैक्टिस करते देख मुस्कुराता है। उसकी आँखों में एक चमक है – “शायद कोई बच्चा मेरा अधूरा सपना पूरा करे।”

सरकार और समाज से अपील

टाटी की कहानी हर गाँव की सच्चाई है। कितने टाटी सुविधाओं की कमी में दफन हो गए? सरकार शहरों में स्टेडियम बनाती है, मगर गाँवों को कब याद करेगी? क्रिकेट का जुनून सिर्फ शहरों का हक़ नहीं – गाँव के बच्चे भी हक़दार हैं। टाटी की दुकान और स्टेडियम एक जवाब हैं, मगर क्या हर गाँव को ऐसा मौका मिलेगा? क्या ग्रामीण टैलेंट को सिर्फ खेतों में खेलने की सज़ा भुगतनी पड़ेगी?

विस्फोटक अपील शेखपुरा कदीम के नेता और मुखियाओं प्रधान से
टाटी के जुनून को सलाम करें। उसकी दुकान और स्टेडियम को सपोर्ट करें। इस कहानी को हर कोने तक पहुँचाएँ – फरजंद अली खान और टाटी की दोस्ती, उनका क्रिकेट प्रेम, और गाँव के बच्चों का भविष्य। सरकार से माँग करें – हर गाँव में एक मैदान बने, हर टाटी को मौका मिले। यह सिर्फ एक कहानी नहीं, हिंदुस्तान के गाँवों की उम्मीद की चीख है।

गाँव के नेताओं और मुखिया से अपील
टाटी जैसे होनहार खिलाड़ियों को अगर सही मंच और संसाधन मिलें, तो वे न सिर्फ़ अपने गाँव बल्कि पूरे देश का नाम रोशन कर सकते हैं। यह गाँव के मुखिया और नेतागणों की जिम्मेदारी है कि वे ऐसी प्रतिभाओं को पहचानें, उन्हें प्रोत्साहन दें और उनकी काबिलियत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने में मदद करें।

अंत में:
जिस मिट्टी ने हमें जन्म दिया, उसकी काबिलियत को निखारना हमारी जिम्मेदारी है। राशिद उर्फ़ टाटी जैसे खिलाड़ियों को अगर सही समय पर सपोर्ट मिला, तो वे आने वाले कल में हमारे गाँव का गौरव बन सकते हैं। इसलिए अब समय है कि गाँव के नेता और मुखिया इस दिशा में ठोस कदम उठाएँ।

“खेतों से दुकान तक, स्टेडियम की राह,
टाटी का जुनून, बच्चों की नई चाह।”

लेखक एवं साहित्य प्रेमी: वजाहत राव(कहानियों में एहसास और हकीकत को उकेरने वाला)

1 अप्रैल 2025

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