मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में स्थित गांव कॉन्स के एक शुभम सिंह नाम के युवक ने लंदन से लौटकर गांव में लगाई फैक्ट्री; लोगों ने कहा- विदेश से आकर भूसा ढो रहा । आगे विस्तार से जानते है इस ख़बर को : यदि आपसे कहूं कि धान की पराली, भूसा, मक्के और गन्ने के छिलके, जिन्हें हम वेस्ट समझते हैं, फसल तैयार होने के बाद जला देते हैं, उनसे पेपर से लेकर प्लाईवुड की तरह फर्नीचर बोर्ड तैयार किए जाते हैं। ये बात जानकार आप थोड़ा चौंके जरूर होंगे?जब मेरे एक जानने वाले ने ये बात बताई, तो मैं भी चौंक गया था। पूरी कहानी जानने के लिए मध्यप्रदेश के ग्वालियर से तकरीबन 60 किलोमीटर दूर मुरैना शहर पहुंचा हूं। यह चंबल का इलाका है। दिल्ली-मुंबई हाईवे से सटे सड़क के दोनों तरफ धान की लहलहाती फसल और दूर-दूर तक चंबल के बीहड़ नजर आते हैं। खेतों में सरसों की बुआई की तैयारी चल रही है।मेरे साथ गन्ने के छिलके से लेकर गेहूं की भूसी से फर्नीचर बोर्ड और पेपर बनाने वाली कंपनी ‘क्रास्ट’ के फाउंडर शुभम सिंह हैं। शुभम हंसते हुए कहते हैं, ‘किसान हर साल लाखों टन पराली, भूसी, गन्ने की खोई वेस्ट समझकर जला देते हैं। यह उनके लिए कचरा है, लेकिन मेरे लिए तो सोना है, गोल्ड…।’शुभम मुझे अपनी फैक्ट्री में लेकर आए हैं। यहां एक तरफ मशीन से पेपर शीट बनाई जा रही है, तो दूसरी तरफ भूसी में कई तरह के केमिकल मिलाकर फर्नीचर बोर्ड के लिए रखा जा रहा है।फैक्ट्री के पीछे का एरिया ऐसे लग रहा है जैसे, चारागाह हो। भूसी और गन्ने की खोई की टाल लगी हुई है। शुभम कहते हैं, ‘यह हमारा रॉ मटेरियल है। इसी से ये सब कुछ तैयार होता है। रिसर्च तो हमने 2018 के बाद ही शुरू कर दी थी, लेकिन प्रोडक्शन इसी साल अप्रैल में शुरू किया है। पिछले तीन महीने में ही हम तकरीबन 20 लाख का बिजनेस कर चुके हैं।’ बातचीत के बीच-बीच में बिजली चली जा रही है। शुभम का घर भी इसी फैक्ट्री से कुछ किलोमीटर की दूरी पर है। वह कहते हैं, ‘मैं मुरैना का ही रहने वाला हूं। यहां बिजली की आज भी किल्लत है।इस वजह से हमारा प्रोडक्शन भी ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। सोचा था कि लोग शहरों में जाकर फैक्ट्री लगाते हैं, लेकिन मैंने शुरुआत अपने गांव से की।मुझे बचपन से केमिस्ट्री से लगाव था। 12वीं के बाद बेंगलुरु केमिकल इंजीनियरिंग करने के लिए चला गया।मुझे याद है, जब मैंने इस सब्जेक्ट को चुना तो बहुत सारे लोगों का यही कहना था- हर स्टूडेंट कंप्यूटर, मैकेनिकल, इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग करना चाहता है, और ये सब्जेक्ट भी चुन रहा है तो केमिकल का।’। शुभम कहते हैं, ‘2014 में बेंगलुरु से B.Tech कम्प्लीट करने के बाद मास्टर की पढ़ाई के लिए लंदन चला गया था। एक रोज अखबार में पढ़ा कि देश की राजधानी दिल्ली प्रदूषण में अव्वल है। केमिकल इंजीनियरिंग का स्टूडेंट होने के नाते मेरे मन में कई सवाल उठने लगे।2016 में मास्टर कम्प्लीट करने के बाद मैं इंडिया आ गया। यहां देखा कि हर साल लाखों टन पराली ऐसे ही खेत में जला दी जाती है। इसी दौरान मेरा सिलेक्शन केंद्र के साइंस एंड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट में बतौर फेलो हो गया।यहीं पर मुझे पराली जैसे अलग-अलग वेस्टेज से प्रोडक्ट तैयार करने के बारे में सूझा। फेलोशिप की थीम थी- वेस्ट टु वैल्यू…।4-5 साल की मेहनत के बाद हम आज यहां तक पहुंचे हैं। शुरू में कुछ लोगों ने ये भी कहा- लंदन से लौटकर भूसा ढो रहा है। जहां शुभम की फैक्ट्री है, उससे कुछ दूरी पर किसानों के घर हैं। खाली जगह में सरसों की फली के छिलकों का ढेर लगा है। एक किसान छिलके दिखाते हुए कहता है, ‘पहले तो किसान पराली को जला देते थे, लेकिन अब इसी से अलग-अलग तरह के प्रोडक्ट बनाए जा रहे हैं।’मैं शुभम से पूछता हूं। लंदन से वापस इंडिया?‘दरअसल, गांव में पला-बढ़ा हूं। हमेशा से कुछ करने का जज्बा था। इस इलाके में सरसों की सबसे ज्यादा खेती होती है।जब आप ठंड में आएंगे, तो पूरा इलाका ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ फिल्म की तरह पीले-पीले सरसों के फूलों से पटा होता है।2018 में पराली और इस तरह के वेस्टेज से पल्प तैयार करके पेपर शीट और फर्नीचर बोर्ड बनाने का काम शुरू किया।’ शुभम कहते हैं, ‘अब तक इसमें ढाई करोड़ के करीब इन्वेस्टमेंट हो चुका है। ये सारा पैसा हमें गवर्नमेंट की तरफ से ग्रांट और फंडिंग के तौर पर मिला है।’शुभम मुझे कुछ फर्नीचर बोर्ड दिखा रहे हैं। यह एकदम प्लाई बोर्ड की तरह लग रहा है। इनके ऑफिस एरिया में बने सारे फर्नीचर आइटम्स इसी पराली और वेस्ट के बोर्ड से बने हुए हैं।शुभम एक फर्नीचर बोर्ड दिखाते हुए कहते हैं, ‘यह 300 किलोग्राम तक का वजन संभाल सकता है। जब मार्केट में टेस्टिंग के लिए जाता था और लोगों से कहता था कि यह पराली से या वेस्टेज से बना हुआ है, तो सभी चौंकते थे।कहते थे- इससे भी इस तरह का प्रोडक्ट बन सकता है! दरअसल, पराली का पल्प तैयार करके इसमें कुछ केमिकल मिलाया जाता है। गोंद भी रहता है। फिर इस रॉ मटेरियल को डाई में भरा जाता है। प्रेस करके फाइनल प्रोडक्ट तैयार किया जाता है।’शुभम डिस्ट्रीब्यूटरशिप के जरिए अपने प्रोडक्ट को बेचते हैं। कहते हैं, ‘शुरुआत में तो कोई डिस्ट्रीब्यूटर हमारा प्रोडक्ट नहीं बेचना चाहता था, लेकिन अब धीरे-धीरे देशभर में 50 के करीब डिस्ट्रीब्यूटर हो चुके हैं।पहले हमारी कंपनी पुणे से काम करती थी, लेकिन बाद में हमने मुरैना में ही ऑफिस शिफ्ट कर लिया। दरअसल, यहां रॉ मटेरियल आसानी से मिल जाता है। अभी हमने 20 लाख का बिजनेस किया है। अगले दो-तीन साल में 100 करोड़ की कंपनी बनाने का टारगेट है।’


इडिया। हर साल लाखों टन पराली यानी गन्ने-गेहूं और सरसों के छिलके को वेस्ट समझकर जला दिया जाता है। लंदन में केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान इससे प्रोडक्ट बनाने के बारे में पता चला। ट्रेनिंग रिसर्च करने और फाइनल प्रोडक्ट बनाने में 4 साल लग गए। केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की वजह से पराली या इस तरह के वेस्ट के कंपोनेंट्स के बारे में पहले से पता था। फंड लंदन से लौटने के बाद केंद्र के साइंस एंड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट में फेलोशिप मिल गई। जब पराली से प्रोडक्ट बनाने का कॉन्सेप्ट पिच किया, तो अलग-अलग टर्म में करीब ढाई करोड़ की फंडिंग मिली।मार्केटिंग। बिजनेस मॉडल आसपास के किसानों से पराली, गन्ने की खोई, मक्के, गेहूं, सरसो के छिलके थोक में खरीदते हैं। इससे पेपर पल्प शीट और फर्नीचर बोर्ड तैयार किया जाता है।अभी तक 20 लाख का बिजनेस हुआ है।