उत्तर प्रदेश की 3130 ग्राम पंचायतों पर अब सवाल उठने लगे हैं। केंद्र सरकार ने इन पंचायतों की वर्क आईडी की जांच कराने का फैसला लिया है। कारण यह है कि कई जगहों से यह शिकायत मिली कि विकास कार्यों का पैसा तो खर्च हो गया, लेकिन जमीन पर कोई काम नज़र नहीं आया।
ऐसी स्थिति से साफ लगता है कि प्रधान, पंचायत सचिव और ठेकेदारों की मिलीभगत से कई जिलों में सरकारी धन का गलत इस्तेमाल हुआ है।
हर साल केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर पंचायतों को लगभग 40,000 करोड़ रुपये विकास कार्यों के लिए देती हैं। लेकिन कई बार यह पैसा असली विकास की बजाय सिर्फ कागज़ों में ही खर्च हो जाता है — जैसे वन महोत्सव में फाइलों पर ही पेड़ लगाए जाते हैं, वैसे ही गाँवों में विकास भी सिर्फ रिकॉर्ड में दिखाई देता है।
चुनाव से पहले भी हो चुकी है गड़बड़ियां
पिछले साल जब पंचायत चुनाव नहीं हुए थे और गांवों में निर्वाचित प्रधान नहीं थे, तब पंचायतों की जिम्मेदारी एडीओ पंचायत के पास थी। इस दौरान कई जगहों पर पंचायत सचिवों और अन्य अधिकारियों ने मिलकर विकास के नाम पर पैसा निकाल लिया।
मुज़फ्फरनगर जिले में ऐसे ही मामले में पंचायती राज विभाग के 5 कर्मचारियों से पैसा वापस लिया गया। ऐसी घटनाएं पूरे प्रदेश में हो सकती हैं।
अजीब प्रस्ताव और मांगें
कुछ ग्राम प्रधानों ने यह भी कहा कि उनसे विकास कार्यों का हिसाब न मांगा जाए। इसके साथ ही यह प्रस्ताव भी रखा गया कि पंचायत का कंप्यूटर सचिव के दफ्तर में न रखकर प्रधान जी के घर पर रखा जाए।
यह भी मांग की गई कि प्रधानों को गोशाला में भूसा देने की ज़िम्मेदारी न दी जाए और वे किसी तरह का योगदान न करें, लेकिन सरकारी बजट और अनुदान ज़रूर मिले।
सवाल यह है कि जब खर्च हो रहा है, तो उसका ऑडिट क्यों नहीं होना चाहिए?
लोकतंत्र की पहली सीढ़ी पर सवाल
पंचायती राज व्यवस्था लोकतंत्र की सबसे बुनियादी इकाई है। अगर यहीं पर पारदर्शिता नहीं होगी तो फिर आम जनता का विश्वास कैसे बना रहेगा?
अब जब स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि सरकार को खुद जांच करवानी पड़ रही है, तो सोचने की बात है कि हमारे गांवों का विकास सच में हो रहा है या सिर्फ कागज़ों पर दिखाया जा रहा है।
✍️ संपादक — TaazaKhabar.Live